Tuesday, October 09, 2007

अब...

अब...

अब ना मुक्ति ना बन्धन |
ना स्मित ना रुदन |
आनंद से युक्त हर धड़कन |
एक नूतन स्पंदन !

अब ना आशा ना निराशा !
ना चाहना ना कामना !
ना अपेक्षा ना आकांक्षा |
विश्रांति और शांति |

अब तो बस हमेशा " हाश ! " |
परम संतृप्ति और ज्योति !
नई द्रष्टि नई सृष्टि !
सर्जनहार की एक अनुपम कृति !

जो है आकाश के उस पार |
वो है अब मेरे पास !
महेसूस करे मेरी हर सांस !
'मनीष' यह पल है कुछ ख़ास !

1 comment:

Manish Panchmatia said...

http://www.youtube.com/watch?v=MibWES8v7x0

Manish presenting this poem.